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जमीन लूट की गारंटी देता भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

बुधवार, 28 जनवरी 2015
जमीन लूट की गारंटी देता भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

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देश में तथाकथित विकास परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित लोगों के लिए मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना की मांग को लेकर लम्बे समय से चले जनांदोलनों के बदौलत भारतीय संसद ने किसान, आदिवासी रैयत एवं कृषक मजदूरों को भयभीत करनेवाला अंग्रेजों द्वारा लागू किया गया भूमि अधिग्रहण कानून 1894’‘ को खारिज करते हुए ‘‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’’ पारित किया था। लेकिन दुःखद बात यह है कि नया कानून देश में ठीक से लागू भी नहीं हो पाया था कि केन्द्र की एनडीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के माध्यम से किसान, आदिवासी रैयत एवं परियोजना प्रभावित लोगों के लिए बनाया गया सुरक्षा घेरा पर सीधा हमला करते हुए इसे समाप्त कर दिया है। केन्द्र सरकार ने सामाजिक प्रभाव आॅंकेक्षण, भूमि अधिग्रहण से पहले परियोजना प्रभावित लोगों की सहमति, खाद्य सुरक्षा, सरकारी आॅफसरों को दंडित करना एवं उपयोग रहित जमीन की वापसी जैसे अति महत्वपूर्ण प्रावधानों को ही मूल कानून से दरकिनार कर दिया है, जिससे यह अध्यादेश जमीन लूट की गारंटी को सुनिश्चित करता प्रतीत होता है।

ऐसा लगता है मानो धरती का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश को चलाने वाली सरकार प्रचंड बहुमत के आड़ में लोकतंत्रिक अभावके दौर से गुजर रहा है। मैं ऐसा इसलिए कहा रहा हूँ क्योंकि जिस तरह से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया गया, वह लोकतंत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। यह अनुसूचित क्षेत्रों के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों एवं आदिवासियों के परंपरिक अधिकारों को भी सिरे से खारिज करता है। केन्द्र सरकार का कहना है कि यह अध्यादेश, देश के विकास एवं किसानों के हितों के लिए फायदेमंद साबित होगा। इसलिए हमें इसपर जरूर विचार करना चाहिए कि इसे किसका भला होने वाला है। क्या इस अध्यादेश का मकसद विदेशी पूंजीनिवेश को देश में बढ़ावा देना है या जनहितके नाम पर उद्योगपतियों को सौंपे गये जमीन की रक्षा करनी है? हमें अध्यादेश लाने की प्रक्रिया एवं महत्वपूर्ण संशोधनों पर गौर करना चाहिए।



भारतीय संविधान अनुच्छेद 123(1) के द्वारा भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि जब संसद के दोनो सदन विश्रामकालीन अवस्था में हो और देश में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाये, जिसमें त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता हैं तो राष्ट्रपति अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है। लेकिन संसद की कार्यवाही पुनः शुरू होने पर उक्त अध्यादेश को दोनों सदनों द्वारा छः सप्ताह के अंदर पारित कराना होगा। कुल मिलाकर कहें तो अध्यादेश की आयु मात्र छः महिने की है। इसलिए यहां कुछ गंभीर प्रश्न उभरना लाजमी है। देश में ऐसी कौन सी परिस्थिति थी जिसने सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने पर मजबूर किया? अध्यादेश के द्वारा केन्द्र सरकार कौन सी विदेशी पूंजीनिवेश को सुनिश्चित करना चाहती थी? अध्यादेश लाने के बाद कौन सी कंपनी ने पूंजी निवेश किया? ऐसा कौन सी विदेशी कंपनी है, जो यह जानते हुए देश में पूंजी लगायेगी कि यह अध्यादेश अगले छः महिने बाद स्वतः खारिज हो जायेगा?

इसमें गौर करने वाली बात यह है कि अध्यादेश पारित करने के लिए केन्द्र सरकार ने लोकतंत्र के मौलिक प्रक्रियाओं को पूरा ही नहीं किया। जबकि यह होना चाहिए था कि सरकार इसके लिए संयुक्त संसदीय समिति एवं सर्वदलीय बैठक बुलाकर उसमें चर्चा करने के बाद इस अध्यादेश को पारित करवाती। लेकिन  केन्द्र सरकार ने अध्यादेश को सिर्फ केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित करने के बाद राष्ट्रपति से हस्ताक्षर करवाकर लागू कर दिया। निश्चित तौर पर यह लोकतंत्रिक प्रक्रियाओं का खुल्ला उल्लंघन है। देश के 125 करोड़ लोगों को प्रभावित करने वाला अध्यादेश को लागू करने का निर्णय सिर्फ मंत्रीपरिषद् कैसे ले सकता है? ऐसे देश में किसान और आदिवासी रैयत कैसे सशक्त हो सकते हैं जहां उनको अपनी राय रखने की आजादी ही नहीं है? क्या केन्द्र सरकार ने पूंजीपतियों के दबाव में गैर-लोकतंत्रिक कदम उठाया?

केन्द्र सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से मूल कानून में भाग-तीन (अ) जोड़ दिया है, जो सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि जनहित के वास्ते राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण आधारभूत सरंचना निर्माण, गृह निर्माण, औद्योगिक क्षेत्र एवं पब्लिक प्राईवेट पार्टनर्शिप से संबंधित परियोजनाओं से मूल कानून के भाग-दो एवं तीन को सरकार मुक्त रखेगी। इन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के समय सामाजिक आंकेक्षण और परियोजना से प्रभावित लोगों से पूछने की आवश्यकता नहीं होगी। यह निश्चित तौर पर मूल कानून की आत्मा और लोकतंत्रिक मूल्यों की हत्या है। जमीन अधिग्रहण करते समय किसानों एवं आदिवासी रैयतों से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए जब औद्योगिक विकास के लिए नीति बनाते समय सरकार उद्योगपतियों को सभी मोर्चो पर सम्मिलित करती है? लोकतंत्र ऐसे सेलेक्टिव कैसे हो सकता है? क्या लोकतंत्र इस देश के किसान, आदिवासी रैयत और कृषक मजदूरों के लिए सिर्फ एक दिन का मामला है?

विकास परियोजनाओं का सामाजिक प्रभाव आंकेक्षण होना बहुत ही अनिवार्य हैं क्योंकि आजादी से लेकर वर्ष 2000 तक विकास परियोजनाओं से 6 करोड़ लोग विस्थापित व प्रभावित हुए हैं, जिनमें से 75 प्रतिशत लोगों का पुनर्वास अबतक नहीं हुआ है। भारत सरकार द्वारा आदिवासियों की भूमि वंचितिकरण एवं वापसी पर गठित ‘‘एक्सपर्ट ग्रुप’’ के अनुसार 47 प्रतिशत विस्थापित एवं प्रभावित होने वाले लोग आदिवासी हैं। देश के तीन बड़े विकास परियोजनाएं - टाटा स्टील, जमशेदपुर, एच.ई.सी., रांची एवं बोकारो स्टील लिमिटेड, बोकारो इस बात के गवाह हैं कि बिना सामाजिक आंकेक्षण किये इन परियोजनाओं को स्थापित किया गया। फलस्वरूप, इन परियोजनाओं से सबसे ज्यादा आदिवासी लोग प्रभावित हुए। उनकी पहचान, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज एवं पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था समाप्त हो गई। अब वे शहरों में रिक्सा चालकों, मजदूरों एवं घरेलू कामगारों के भीड़ में शामिल हो चुके हैं।

कैग ने भी अपने रिपोर्ट में कहा है कि सेज परियोजनाओं में पुनर्वास की स्थिति ठीक नहीं है। उदाहरण के तौर पर देखें तो आंध्रप्रदेश के विशाखापटनम जिले के अतचयुतापुरम में वर्ष 2007-08 में एपाइक के सेज परियोजना के लिए 9287.70 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमें 29 गांवों के 5079 परिवार विस्थापित हुए। लेकिन इनमें से सिर्फ 1487 परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है, जो स्पष्ट दिखाता है कि जमीन अधिग्रहण करने से पहले कंपनियां ठीक ‘‘लोकसभा चुनाव अभियान’’ की तरह वादा करते हैं लेकिन जमीन अधिग्रहण करने के बाद अपना वादा भूल जाते हैं और विस्थापितों को रोने-धोने हेतु छोड़ देते हैं। इस तरह से जमीन के मालिक नौकर बनने पर मजबूर कर दिये जाते हैं।

यह निश्चित तौर पर पांचवीं एवं छठवीं अनुसूचि क्षेत्र के तहत आने वाले राज्यों के लिए चिंता का विषय है, जहां संवैधानिक प्रावधान, पेसा कानून एवं जमीन संबंधी कानून इस बात पर जोर देते हैं कि आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकते हैं और गैर-कानूनी तरीके से खरीदी गयी जमीन वापस की जा सकती है। ये कानून उनके संस्कृतिक पहचान, परंपरा, रीति-रिवाज एवं सामुदायिक अधिकारों की गारंटी देते हैं। इसी तरह वन अधिकार कानून 2006 व्यक्तिगत एवं सामुदायिक अधिकारों की गारंटी देती हैं। इसलिए सामाजिक अंकेक्षण एवं प्रभावित समुदायों के स्वीकृति के बगैर जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। उदाहण के लिए झारखंड औद्योगिक नीति 2012 में कही गयी है कि राज्य सरकार कोडरमा से लेकर बहरागोड़ा तक सड़क के दोनो तरफ 25-25 किलोमीटर क्षेत्र में औद्योगिक काॅरिडोर का निर्माण करेगी। यहां सबसे ज्यादा जमीन आदिवासियों का ही अधिगृहित होगी। ऐसी स्थिति में क्या उनसे बिना पूछे उनके जमीन का अधिग्रहण करना उनके साथ अन्याय नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट ने नियमगिरि पहाड़ से संबंधित ‘‘ओडिसा माईनिंग काॅरपोरेशन लि. बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’’ के मामले पर सुनवाई करते हुए पेसा कानून 1996 की धारा - 4 (डी) को शक्ति से लागू करने की बात कही है, जिसके तहत ग्रामसभा को सर्वोपरि माना गया है, जिसके पास समुदाय की संस्कृतिक पहचान, परंपरा, राति-रिवाज, समुदायिक संसाधन एवं सामाजिक विवाद को हल करने की शक्ति है। इतना ही नहीं, आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की स्थिति पर अध्ययन करने के लिए गठित खाखा समितिने इस बात पर जोर दिया है कि आदिवासियों के लिए जमीन उनके सामाजिक-आर्थिक, धार्मिक पहचान, आजीविका एवं अस्तित्व का आधार है। ऐसी स्थिति में जमीन के बदले सिर्फ मुआवजा के रूप में पैसा दे देने से उनका अस्तित्व नहीं बच सकता है। इसलिए सरकार किसी भी मायने में इन आधिकारों को एक अध्यादेश के द्वारा नहीं छिन सकती है।

भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना कानून में खाद्य सुरक्षा की गारंटी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है, जिसके तहत यह कही गयी है कि किसी भी हालत में खेती की जमीन का अधिग्रहण नहीं करना है और अगर ऐसा करने की परिस्थिति आयी तो जमीन मालिकों को जमीन के बदले जमीन उपलब्ध कराकर उसे खेती योग्य बनाया जायेगा। लेकिन अध्यादेश के द्वारा इसे खारिज कर दिया गया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का कुल 55 प्रतिशत जनसंख्या एवं 91.1 प्रतिशत आदिवासी लोग अभी भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर पूर्णरूप से निर्भर है। विगत दो दशकों का अनुभव बताता है कि देश में खाद्यान्न उत्पादन में कमी आयी है। यह सन 1986-97 की तुलना में 1996-2008 में 3.21 प्रतिशत से 1.04 प्रतिशत की कमी आयी है। इसलिए खाद्य सुरक्षा के सवाल पर किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता है।

केन्द्र सरकार ने अध्यादेश के द्वारा सरकारी आॅफसरों को सजा मुक्त कर दिया है। मूल कानून में यह प्रावधान किया गया था कि सरकारी विभाग द्वारा कानून का उलंघन करने की स्थिति में विभाग के वरिष्ठ पदाधिकारी सजा के भागीदार होंगे लेकिन अध्यादेश के द्वारा सरकार ने न्यायालय से यह अधिकार छिन लिया है। कानून का उल्लंघन करने के बावजूद आॅफसरों के खिलाफ बिना विभागीय अनुमति के कोई भी न्यायलय में मामला नहीं चल सकता है। लेकिन कानून में सजा का प्रावधान जरूरी इसलिए है क्योंकि सरकारी आॅफसरों के लापरवाही के कारण विस्थापितों को समय पर मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन सही ढंग से नहीं मिलता है। कई परियोनाओं में ऐसा भी देखा गया है कि विस्थापितों के जगह पर किसी अन्य व्यक्ति को मुआवजा की राशि दे दी गयी।

एक अन्य महत्वपूर्ण संशोधन सेक्शन 101 में किया गया है, जिसमें अवधि जोड़ दी गयी है, जिसमें यह व्यवस्था थी कि अधिगृहित जमीन का उपयोग उक्त परियोजना के लिए 5 वर्षों तक नहीं होने की स्थिति में जमीन मालिक को वापस किया जाना अनिवार्य था। देश में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिसमें जनहित के नाम पर जमीन का अधिग्रहण किया गया लेकिन उपयोग नहीं होने के कारण कई दशकों तक बेकार पड़ा रहा। टाटा स्टील लि., जमशेदपुर में स्थापित स्टील प्लांट के लिए 12,708.59 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था लेकिन सिर्फ 2163 एकड़ जमीन का ही उपयोग हुआ और शेष जमीन बेकार पड़ी रही, जिसमें से 4031.075 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से सब-लीज में दे दिया गया। इसी तरह एच.ई.सी. रांची के लिए वर्षा 1958 में 7199.71 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमें से सिर्फ 4008.35 एकड़ जमीन का ही उपयोग मूल मकसद के लिए किया गया, 793.68 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से निजी संस्थानों को सब्लीज में दे दी गयी एवं शेष जमीन अभी तक उपयोग रहित हैं।

कैग द्वारा जारी ‘‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’’ प्रगति प्रतिवेदन 2012-13 देखने से स्पष्ट होता है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश मूलतः अंबानी, अदानी जैसे उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है, जिन्होंने ‘‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’’ के निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण कानून 1984 की धारा - 6 के तहत ‘‘जनहित’’ के नाम पर अत्याधिक जमीन का अधिग्रहण किया लेकिन उसका समुचित उपयोग नहीं कर पाया है। ऐसी स्थिति में अधिगृहित जमीन मूल रैयतों को वापस देना पड़ सकता है। चूंकि इन्ही औद्योगिक घरानों ने लोकसभा चुनाव में भारी पैसा लगाकर नरेन्द्र मोदी को सिंहासन पर बैठाया था इसलिए अब केन्द्र सरकार अध्यादेश के द्वारा उनकी जमीन बचाकर अपना कर्ज उतारना चाहती है।

कैग प्रतिवेदन के अनुसार, सेज कानून के लागू होने से अबतक 576 सेज परियोजनाओं की स्वीकृति प्रदान की गयी, जिसके तहत 60374.76 हेक्टेअर जमीन का अधिग्रहण हेतु स्वीकृति मिली। इनमें से मार्च 2014 तक 392 सेज परियोजनाओं के लिए 45,635.63 हेक्टेअर जमीन पर नोटिफिकेशन जारी किया गया। लेकिन 392 में से सिर्फ 152 परियोजना लग पायी है, जिसमें 28488.49 हेक्टेअर जमीन शामिल है। इसके अलावा शेष 424 सेज परियोजनाओं को दी गयी 31886.27 हेक्टेअर जमीन यानी 52.81 प्रतिशत परियोजनाओं में कोई काम आगे नहीं बढ़ा, जबकि इनमें से 54 परियोजनाओं का नोटिफिकेशन 2006 में की गयी थी। यानी मूल कानून के अनुसार इन परियोजनाओं की अवधि समाप्त हो चुकी है इसलिए अधिगृहित जमीन मूल रैयतों को वापस करना पडेगा।

कैग रिपोर्ट इस बात का भी खुलासा करती है कि 392 नोटिफाईड सेज परियोजनाओं में से 1858.17 हेक्टेअर जमीन से संबंधित 30 सेज परियोजनाएं अंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिसा एवं गुजरात से संबंधित हैं, जिनमें डेवलाॅपर्स ने कुछ भी कार्य नहीं किये है और जमीन 2 से 7 वर्षों तक बेकार पड़ी हुई है। इतना ही नहीं कैग रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि इन राज्यों में 39245.56 हेक्टेअर जमीन में से 5402.22 हेक्टेअर जमीन को डिनोटिफाईड किया गया और दूसरे आर्थिक कार्यों में लगाया गया, जो सेज के उद्देश्य के खिलाफ है। कैग ने सेज परियोजनाओं के लिए अधिगृहित जमीन का उपयोग नहीं करने के लिए रिलायंस, डीएलएफ, एस्सार की खिचाई भी की है।

निश्चित तौर पर केन्द्र सरकार ने एक षडयंत्र के तहत भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के द्वारा भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनव्यर्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’ के मूल उद्देश्य को ही समाप्त कर दिया है, जिसे परियोजना प्रभावित लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना में पारदर्शिता लाने के लिए लागू की गयी थी। इस कानून के माध्यम से देश के विकास, राष्ट्रहित एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर विस्थापितों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को न्याय में बदलने का वादा किया गया था। इसलिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस लेना चाहिए क्योंकि इससे जमीन लूट को बढ़ावा मिलेगी जिसका किसान, आदिवसी रैयत एवं कृषक मजदूरों पर विपरीत असर पड़ेगा। 


Tribal Entrepreneurship Development Program - 2015

Johar!

Thanks for your interest, Please find details about Program. # Aim :
- Training and Awareness about Social entrepreneurship
- Tribal Youth Leadership and Social awareness
# Purpose :
- Tribal Empowerment through creating Tribal Entrepreneurs
# Method :
- Workshop > Small Venture Start up > Business Demonstration > Social Entrepreneurship
#Training Plan :
1) Advertising and awareness
2) Submit online Application at www.event.adiyuva.in
3) Interview/Shortlisting of Candidates
4) Training Program and Workshop to selected candidates
5) Business Venture Start up Ideas
6) Create Business Plan and Start up activities
# Training Program A : Tribal Youth Leadership Program
Qualification :
1) Graduate (Exemption in case of already experienced in entrepreneurship )
2) Active Participation and social interest in Tribal Empowerment Activities
Training : 5 Days Residential Training Program
# Training Program B : Tribal Empowerment Workshop
Qualification :
1) Representative of Local Bodies (Zilha Parishad, Gram Panchayat, Society, Sanghatana)
2) Active Participation and social interest in Tribal Empowerment Activities
Training : 1 Day Training Program
# Training Fees :
Rs. 2,000/- per candidate *
Top 30, Best performer candidates will be exempted from Fees (Conditions applied)
Note :
Its tentative Plan, Details depends on actual response
* - Subjected to Conditions
Are you interested to Participate?
if so, then Submit your participation form. click on continue.... Submit online Application at www.event.adiyuva.in



Ashokbhai Chaudhari @ Conference on Towards Peaceful World at Pune

दिनांक १६ नोव्हेंबर २०१४ पुणे येथील वसुधैव कुटुंबकम तर्फे आयोजित जागतिक शांतता आणि एकात्मता परिषद (विषय - धर्म, मातृभूमी, महिला) मध्ये आदिवासी समाजाचे प्रतिनिधित्व करताना आप. अशोकभाई चौधरी यांनी मांडलेले काही ठळक मुद्दे थोडक्यात. कृपया सर्वांनी एकदा वाचुन नक्की विचार करावा. 
१) private  ownership (खाजगी मालकी ) :
 अत्यंत महत्वाचा मुद्दा त्यांनी मांडला कि,आदिवासी समाजात खाजगी मालकी ची संकल्पना कधी रुजली नव्हती, म्हणून कधी आदिवासी साम्राज्ये फारशी बनली नाहीत, जी बनली ती स्वरक्षणार्थ बनली. याला कारण असे कि संपत्ती व खाजगी मालकी बनवली, तर तिचे रक्षण, वयक्तिक इर्षा, स्पर्धा,स्वार्थ, मोह,  हिंसा उदयास येते. आदिवासी समाज मात्र या पासून अलिप्त राहून अजुनी सामाजिक एकात्मता, परस्पर सहकार्य, हे जीवन शैलीत सहज येते.
 पुढे जावून श्री. अशोकभाई हा मुद्दा आणखी विस्तारत म्हणाले कि,आदिवासींनी संपत्ती स्वतःजवळ साठवून न ठेवता ते समाजात वाटून घेत असत. आणि म्हणून जर संपत्तीच नाही तर गरीब श्रीमंत हा भेदभाव देखील आदिवासींमध्ये रुजला नाही. समानता हा आदिवासी समाजाचा सर्वात मोठा पाया हा याच गोष्टीमुळे ठरतो.
          संपत्ती नाही म्हणून कधी institutions बनली नाहीत. सामाजिक, आर्थिक कोणत्याच प्रकारच्या संस्था विकसित झाल्या नाहीत. व्यापार, व्यवहार, गरजे पेक्षा जास्त जमा करणे याची गरजच कधी आदिवासींना पडली नाही. जे काही व्यवहार व्हायचे ते सर्व एकमेकांवरील विश्वासाच्या आधारावर व्हायचे.
२) self governance system (स्वशासन प्रणाली)
          दुसरा मुद्दा हा खूप महत्वाचा मांडला. अशोकभाई म्हणतात कि, "आदिवासी समाज जरी समूहा समूहाने राहत असला तरी त्यांनी स्वताची self governance system (स्वशासन प्रणाली ) त्यांनी विकसित केली आहे. या प्रणाली अंतर्गत समाजाच्या छोट्या मोठ्या समस्या आपापसात चर्चा व समेट घडवून सोडवल्या जात , त्यांचे स्वतःचे काही नियम व कायदे आहेत,त्यामुळे वेगळ्या एखादया किंवा बाहेरच्या न्यायप्रणालीची आदिवासींना कधी गरज पडली नाही.
३) स्वावलंबन      
          तिसरा अत्यंत महत्वाचा मुद्दा मांडला गेला तो म्हणजे स्वावलंबन , हा मुद्दा मांडताना अशोकभाई म्हणतात कि आमच्या मुलांना कधी विज्ञान शिकवायला वा  तंत्रञान  शिकवायला विशेष प्रणालीची आवश्यकता भासली नाही. कारण आमची मुले सामुहिक होवून काम करणारा समाज बघून सामुहीकता,संघटीतपण हे गुण शिकतात. दैनदिन जीवनातून त्यांनी विज्ञान व तंत्रञान शिकलेय.
          आदिवासी समाज हा अत्यंत स्वावलंबी , शिस्तबद्ध आणि स्वतःची एक शाषणपद्धती विकसित करून चालवणारा असा स्वयंभू समाज आहे .
   सर्व समाजाला उद्देशून बोलताना अशोकभाईनी आदिवासी समाजाची तत्वे सोडून जर आपण चालू पडलोय आणि यामुळे आपण स्वताचे नुकसान करून घेतोय सर्व मानवजातीचे नुकसान करतोय असा महत्वाचा इशारा दिला,ते म्हणाले कि आज आपण सर्वजन समाजात विविध तत्वांची मांडणी करतो मात्र वागतोय त्याच्या अगदी विरुद्ध! प्रत्येक जन आज ध्येय पूर्तीच्या मागे लागलाय ,जास्ती मिळवण्याच्या मागे लागलाय आणि जास्ती मिळवण्यासाठी एकमेकांशीच स्पर्धा करू लागलोय स्पर्धेतून द्वेष मत्सर निर्माण होवून मानव जातीमध्ये विष पसरत आहे हे जर टाळायचे असेल तर आदिवासी तत्वे आत्मसात करणे खूप गरजेचे आहे . "मला वाटते कि या जगाचे पुन्हा retribalisation व्हावे असे मला वाटते" असे अशोक भायींनी म्हणताच सभागृहात टाळ्यांचा एकच गजर झाला.

 विज्ञानाचा वापर हा एकमेकांना जोडायला केला गेला पाहिजे न कि एकमेकांना मारायला हे सांगायला ते विसरले नाहीत.  भाषण संपवताना मात्र त्यांनी असा मुद्दा उपस्थित केला कि सर्वांना विचार करायला भाग पाडले. इंगजी आणि हिंदीमधून भाषण देताना म्हणाले कि, we all  believe Darvin's principle right?" म्हणजे आपण सर्व जन डार्विन च जीवउत्क्रांतीचा सिद्धांत मानतो त्यावर विश्वास ठेवतोय ना. (सभागृहात  होकारार्थी माना  डोलावल्या गेल्या ) या सिद्धांतात म्हटलेय कि माकड (वानर) हे आपले पूर्वज होते आणि ते आपण अभिमानाने मान्य करतो.  मग आपण हे का मान्य करत नाहीत कि आदिवासी हे आपल्या पूर्वजांचे पण पूर्वज होते .?"( सभागृत टाळ्या वाजू लागल्या मात्र त्याच बरोबर उपस्थित पण विचारात पडले  हे सर्वांच्या चेहऱ्यावर दिसत होते)

सदर चे भाषण बघण्या साठी येथे क्लिक करा : http://youtu.be/HJHFe_vTtaA  


Clicked by Lalsing Gamit : Sonal Rathava, Dr Shantilal,  Ashokbhai Chaudhari, Akshay Kondhar & Sachin Satvi

Adivasi Ekta Mahasammelan 14 & 15 Jan 2015

Adivasi Ekta Mahasammelan 14 & 15 Jan 2015











अनुसूचित जमाती आणि धनगर यांतील फरक

अनुसूचित जमाती आणि धनगर यांतील फरक
१) व्यवसाय:
अनुसूचित जमातींचा कोणताही वंशपरंपरागत अर्थार्जनाचा व्यवसाय नसतो. अगदी अलीकडच्या काळात ते स्थायी शेती करू लागले आहेत. मात्र धनगर हे वंशपरंपरेने पशुपालक आहेत. धनगरांकडे मेंढ्या, शेळ्या, म्हशी, घोडे असे मोठ्या भांडवली किंमतीचे पशु असतात. ते पशुआधारित दुधाचा व्यवसाय, लोकरीचा व्यवसाय, पशुमांस विकण्याचा व्यवसाय, सुत कातण्याचा व्यवसाय, शेळी मेंढी पालन हे व्यवसाय करून अर्थार्जन करतात. अनुसूचित जमातीचे लोक जे पशु पाळतात ते व्यवसाय म्हणून नव्हे तर वैयक्तिक उपयोगासाठी पाळतात. जसे शेतीसाठी बैल किंवा राखणीसाठी कुत्रा वगैरे. त्यामुळे आर्थिक मिळकतीसाठी पशु पाळणारे धनगर अनुसूचित जमाती या वर्गीकरणात बसत नाहीत.
२) भौगोलिक प्रदेश:
अनुसूचित जमातीचे निकष ठरविण्यासाठी संविधानाच्या ३४२व्या कलमात असे स्पष्ट लिहिले आहे की त्यांचा वास्तव्याचा प्रदेश हा पृथक असायला हवा (Geographical isolation). याचा अर्थ असा की अनुसूचित जमातीच्या लोकांचा वास्तव्याचा प्रदेश हा एका छोट्या भौगोलिक क्षेत्रातच सीमित असून, तो इतर नागरी वस्तीपासून पूर्णत: अलिप्त असतो. अनुसूचित जमातींच्या गावांत शक्यतो केवळ एकाच जमातीच्या माणसांची वस्ती असते.
याउलट धनगर हे नेहमी स्थलांतर करीत असल्याने त्यांचा कोणताही भौगोलिक प्रदेश निश्चित नाही. धनगरांची वसतिस्थाने ही वेगळी असली तरी ती पृथक/अलिप्त नसतात (non-isolated). त्यांची वस्ती ही नेहमी इतर नागरी वस्त्यांच्याच सान्निध्यात असते. मराठा आणि इतर उच्चवर्णीय जातींतच धनगर समाजाची वस्ती आहे, त्यामुळे त्या वस्त्या पृथक म्हणजेच isolated ठरत नाहीत. आणि भौगोलिक प्रदेशाचा पृथक (isolated) असणे हा सर्वात महत्वाचा निकष ते पूर्ण करू शकत नसल्यामुळे ते अनुसूचित जमाती ठरू शकत नाहीत.
महाराष्ट्रातील सर्व अनुसूचित जमातींचे भौगोलिक क्षेत्र हे काही जिल्ह्यांपुरातेच मर्यादित आहे, बहुतांश जमाती या वैयक्तिकरित्या प्रामुख्याने प्रत्येकी एक किंवा दोन जिल्ह्यांतीलच ठराविक दुर्गम अलिप्त, आणि पृथक भौगोलिक क्षेत्रांत वसलेल्या आहेत, त्याउलट धनगर समाज हा संपूर्ण महाराष्ट्रभर विखुरलेला आहे, त्यामुळे त्यांचा भौगोलिक प्रदेश हा पृथक (isolated) म्हणताच येऊ शकत नाही. कारण संपूर्ण महाराष्ट्र हा काही पृथक (isolated) प्रदेश ठरू शकत नाही.
३) आर्थिक स्थिती
आर्थिक स्थितीचे अचूक आकडे मिळत नाहीत, मात्र काही सरकारी अथवा संशोधन संस्थांची प्रकाशित झालेली आकडेवारी ग्राह्य धरता येऊ शकते.
धनगरांच्या आर्थिक सुबत्तेविषयी माहिती देण्यासाठी एक संदर्भ देतो.
Indian Veterinary Research Institute, Izatnagar आणि Central Avian Research Institute, Izatnagar यांनी केलेला एका सामाजिक आर्थिक अभ्यासमालेचे निष्कर्ष सादर करतो. सदर निष्कर्ष हे Journal of Recent Advances in agriculture या अभ्यासपत्रिकेत प्रसिद्ध झाले आहेत. (पूर्ण संदर्भ पुढील प्रमाणे : Socio Economic Profile of Sheep Reared Dhangar Pastoralists of Maharashtra, India, by Patil D. S., Meena H. R., Tripathi H., Kumar S. and Singh D.P., in J. Rec. Adv. Agri. 2012, vol. 1(3): pages 84-91)
वरील अभ्यास निरीक्षणानुसार सांगली आणि कोल्हापूर या दोन जिल्ह्यांत प्रत्येक धनगर कुटुंबाकडे सरासरी ६९.४८ इतक्या मेंढ्या, आणि २० इतक्या शेळ्या एवढी संपत्ती स्वत:च्या मालकीची होती, आणि ही एक दोन नव्हे तर परीक्षण केलेल्या प्रत्येक कुटुंबाची सरासरी आहे हे विशेष. याव्यतिरिक्त घोडे आणि म्हशी यांचीही उपलब्धता प्रत्येक कुटुंबाकडे उल्लेखनीय संख्येत आहे. याच अभ्यासमालेत असे निदर्शनास आले आहे की एकूण ७३% धनगर कुटुंबांचे वार्षिक उत्पन्न हे ६०००० रुपयांहून अधिक होते. (म्हणजे दरमहा ५००० रुपयांहून अधिक) तर भूमिहीन लोकांची संख्या केवळ १४% होती.
याउलट STATISTICAL PROFILE OF SCHEDULED TRIBES IN INDIA 2010 या जनजातिय कार्य मंत्रालय भारत सरकार, (MINISTRY OF TRIBAL AFFAIRS) यांच्या अहवालानुसार महाराष्ट्रातील ग्रामीण भागात ५६.६% आदिवासी हे दारिद्र्य रेषेखाली जीवन जगत आहेत. तर २००६-१० च्या दरम्यान करण्यात आलेल्या एका सर्वेक्षणानुसार ४० % हून अधिक आदिवासी लोकसंख्या भूमिहीन होती. या आर्थिक स्थितीच्या आकड्यांवरून हे स्पष्ट होते की सामाजिक दृष्ट्याच नव्हे तर आर्थिक दृष्ट्या देखील धनगर हे अनुसूचित जमातींपेक्षा वेगळे आणि अधिक पुढारलेले आहेत,
४) ऐतिहासिक राजकीय आणि सामाजिक स्थिती
धनगरांचा इतिहास पाहिल्यास पुढील बाबी समोर येतात, विजयनगर साम्राज्याची स्थापना धनगरांनी केली होती. धनगरांनीच होयसाळ, होळकर, राष्ट्रकुट, मौर्य आणि पल्लव या इतिहासातील मोठ्या राजसत्ता स्थापन केल्या आहेत. प्रसिद्ध कवी कालिदास आणि कनकदास हेदेखील धनगर होते. थोडक्यात असे लक्षात येते की धनगरांनी इतिहासात राजसत्ता उपभोगल्या असून, त्यांची सामाजिक स्थिती देखील उत्कर्षाची राहिली आहे. (संदर्भ: http://www.dhangar.org/)
त्याउलट आदिवासी जमातींचा इतिहास पाहिला तर अगदी थेट महाभारतीय काळातही उपेक्षित असलेल्या एकलव्याच्या उदाहरणावरून त्यांच्या ऐतिहासिक दुर्लक्षित, उपेक्षित आणि पृथक सामाजिक परिस्थितीची कल्पना येते.
आणि म्हणूनच धनगर हे अनुसूचित जमातींपासून पूर्णत: वेगळे ठरतात.


Rahul C Bhangare

Adivasi Bachavo Andolan ! (VDO/News)

Adivasi Bachavo Andolan 

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आदिवासी माणसांची बाजू भक्कमपणे मांडणारे आत्ता समोर आणावे लागणार आहेत - विजयकुमार घोटे



पृथ्वीवरील महान संस्कृती म्हणून आदिवासी संस्कृतीकडे पाहिले जाते ,वेळोवेळी झालेल्या परकीय आक्रमणाने आणि तयार झालेल्या जुलमी परिस्थिती विरोधात सर्वात प्रथम आदिवासी माणसाने बंड केला आणि भारत भूमीच्या रक्षणासाठी नेहमीच सिंहाचा वाटा उचलला .इतिहासाची पाने लिहिणार्यांनी जर अभ्यासपूर्वक इतिहास लिहिला असता तर आज इतिहासातील ”हिरो” हा आदिवासी माणूस असता मात्र आदिवासी वीरांना नेहमी इतिहासात दुयम स्थानी ठेवले पण त्यांच्या लक्षात हे नाही आले कि ,कोंबड झाकून ठेवल म्हणजे सूर्य उगवायचा राहत नाही परकीयांच्या विरोधात “उलगुलान” पुकारणार्या आदिवासी माणसाला मात्र आज आमच्या स्वार्थी राजकारणी लोकांनी पूर्ण गुलाम करून ठेवलाय कुणी “वनवासी” म्हणतंयतर कुणी आदिवासींमध्ये समावेश करा म्ह्णून बोंबा मारतय
आज आदिवासी समाजा समोर मोठ भयानक संकट उभं राहिलंय ते “ घुसखोरी” आणि बोगस आदिवासी लोकांचे महाराष्ट्र सह देशात आदिवासींवर आणि त्यांच्या आरक्षणावर परकीय जातीचे आक्रमण होत असून या आक्रमणाला आमचे राजकीय नेते , पुढारी मोठ्या प्रमाणात जबाबदार आहेत फक्त महाराष्ट्र राज्यापूरता विचार करायचा झाला तर महाराष्ट्र राज्यात असणारया ४७ आदिवासी जमातीवर आत्ता मोठ्या प्रमाणात अतिक्रमण होत आहे .निवडणुकीचा पंचवार्षिक हंगाम जवळ येताच आरक्षणाची आणि आदिवासींमध्ये समावेशाची मागणी करणार्या बेडकांची डराव डराव सुरु झाली आहे लोकसभा निवडणूक सुरु होण्याच्या आधीपासून सुरु झालेला आरक्षण आणि आदिवासींमध्ये समावेश हा सामाजिक मुद्दा अधिक भडकत जात आहे “ वंजारी समाजाचा आदिवासीमध्ये समावेश करा “ “धनगर समाजाचा आदिवासींमध्ये समावेश करा “ “ कोळी समाजाला आदिवासींमध्ये घ्या “ अस्या बातम्या झळकायला सुरुवात झाली आहे , मोर्चे आंदोलने होत आहेत ,आरक्षण आणि आदिवासींमध्ये समावेश हा संघर्ष वाढत असला तरी हि सर्व तयारी म्हणजे “” मिशन २०१४ “ ची जोरदार तयारी आहे हे आज कुणाच्या लक्षात येत नाही फक्त याला सामाजिक मुद्दा म्हणून आग दिली जात आहे ...! आदिवासींमध्ये समावेश करावा म्हणून कुणी मा . शरद पवार यांचेकडे जातात तर कुणी अजित पवार यांचे पाय धरताना दिसत आहेत .आणि महाराट्रातील आमचे लोकप्रतिनिधी कोणतेही ठोस पाउले उचलताना दिसत नाही किव्हा या संघर्षात प्रत्यक्षात सहभागी न होता “ तुम लढो हम कपडे सांभालते है” या पद्धतीत वागत आहेत .
महाराष्ट्रात एकूण २५ आमदार हे आदिवासी असले तरी त्यांची आदिवासी हि ओळख फक्त आरक्षण आणि निवडणूक एव्हढीच आहे सर्वच्या सर्व २५ आमदार पाळलेले कुत्रे आहेत , कुणी राष्ट्रवादीचा कुत्रा आहे ,कुणाला कॉंग्रेस ने पाळलाय , कुणी भाजपा ची राखणदारी करतोय , कुणी शिवसेनेचे उकिरडे उकरतोय , कुणी अपक्ष होऊन नेत्यांचे पाय चाटतोय .महाराष्ट्रात सर्वात जेष्ठ आदिवासी नेते म्हणून मा. मधुकरराव पिचड यांची ओळख आहे तर राजेंद्र गावित , वसंत पुरके ,पद्माकर वळ्वी, यांनाही मंत्रिपद आहे आणि सर्वच्या सर्व २५ आमदार आदिवासी मतदार संघातून निवडून आले आहेत म्हणजे यांच्या पाठीशी प्रत्येकी ५/१० हजार कार्यकर्ते आपापल्या मतदार संघातून असायलाच पाहिजे मात्र परिस्थिती उलट आहे फक्त आदिवासी विकासमंत्री मधुकरराव पिचड सोडले तर बाकीच्या आमदारांना चा “ स “ देखील समजत नाही आणि कोणत्याही आमदाराच्या मागे जनता नाही हे पण हे पण महत्वाच आहे . धनगर समाजाला आदिवासींमध्ये घेण्याचे अश्वासन हे सर्वात पाहिल्यादा शरद पवार यांनी दिले होते ,आणि लगेचच अजित पवार यांनीही या मागणीला हवा दिली होती तेव्हापासून धनगर समाज्यातील नेत्यांचे पाउले नेहमीच बारामतीच्या दिशेने पडत राहिली आणि बाराम्तीमाधुनच अस्वास्नाचा प्रसाद पण मिळत राहिला आणी त्याच पक्षातले जेष्ठ नेते मधुकर पिचड या सर्वांच्या विरोधात राहिले म्हणजे एकाने आश्वासन द्यांचे आणि दुसर्याने विरोध करायचा म्हणजे आग त्यांनीच लावली आणि विझवायला पण त्यांचेच नेते नाशिक मध्ये राजीनाम्याची भाषा करणारे पिचड नागपूरमध्ये म्हणतात कि मी राजीनामा दिला तर हि लढाई मला लढता येणार नाही ,या पुढारी मंडळींची डबल ढोलकी नेहमीची आहे . आदिवासी समाजाचे जर २५ आमदार आहेत तर प्रत्येक मेळाव्यात , सभेत , ५/६ सोंगेच नाचताना दिसतात . घुसखोरी आणि आरक्षण हा भयंकर सामाजिक मुद्दा आहे आणि सर्वसामान्य जनतेने एकत्र येण्या आधी आपल्या २५ आमदारांनी एकत्र यायला हवे होते आणि प्रत्येकाला जर वाटते कि मी आदिवासी आहे आणि माझ्या मागे आदिवासी माणूस आहे तर यांनी प्रत्येकी ५००० कार्यकते आपापल्या मतदार संघातून जरी एकत्र आनले असते तरी हा मोर्च्या राज्यातील एक ऐतिहासिक मोर्चा झाला असता मात्र यांच्या पाठीशी खरोखर कुणी नाही असते तर पुणे येथे २४ जुलै रोजी झालेल्या पुण्यातील मोर्च्या साठी आश्रम शाळेतील मुलाना गाड्या भरून नेण्याची वेळ आली नसती मात्र निवडून आलेले आमचे नेते आमदार यांनी त्यांच्या चडीच्या नाड्या हाय कमांड , साहेब , दादा यांच्या हातात देवून पूर्ण आदिवासी समाज त्यांचा गुलाम करून ठेवला . खरे तर या आंदोलनाची सुरुवात शरद पवार यांच्या पुतळा दह्नाने व्हायला हवी होती कारण त्यांनीच धनगर समाजाला आदिवासी मध्ये घेण्याचे आश्वासन दिले होते पण या राजकीय लोकांनी थेट धनगर विरुद्ध आदिवासी असा संघर्ष पेटवून दिला . आज धनगर आणि आदिवासी मतांवर डोळा ठेवून शिवसेनेनेही धनगर समाजाला पाठींबा दिल्याने अजूनच नवीन भडका उडाला पण आमचे काही आमदार शिवसेनेतही आहेत त्यांनी तोंडातून ब्र देखील काढला नाही .एक आमदार फुटला तरी सरकार पडते मात्र आमच्या २५ आमदारांनी कधीही आदिवासी मुख्यमंत्री का नको असा विचार केला नाही .२५पैकी १८ आमदारांशी मी फोन करून बोललो ,त्यांनी त्यांच्या कार्यकालात आदिवासींच्या कोणत्या सामाजिक विषयावर काम केले हा माझा पहिला प्रश्न होता तर त्याचे उत्तर त्यांच्याकडे नाही आणि राज्यघटनेतील कलम ३४२ बद्दल माहिती आहे हा तर तेही माहित नाही , खरे तर कुणाला आदिवासी जमातीत घ्यायचे याचा निर्णय राज्यपाल , राष्ट्रपती , संसद , घेते मात्र आमचे राजकीय नेते दर पाच वर्षांनी अस्वास्नाची अशी काही आग लावतात कि सर्व समाज संघर्षात जळतो . आताही तोच प्रकार घडलाय सर्व आदिवासी आमदाराना माहित आहे कि आपण कोणत्याही आदिवासी प्रश्नावर आवाज उठवला नव्हता आणि आपल्याच मतदार संघात किती मतदार आपल्या पाठीशी आहेत आणि प्रसिद्धीत येण्यासाठी काही मार्ग दिसेना मग मग काय धनगर , कोळी , वंजारी आणि आदिवासी असा संघर्ष पेटवून निवडणुकीची जय्यत तयारी सुरु करून टाकली ....! आदिवासी मध्ये समावेश हा मुद्दा नवीन नाही या आधीच उच्च न्यायालय , सर्वोचं न्यायालय , राष्ट्रपती , आणि संसद यांचेकडे शेकडो प्रकरने गेल्या ३५/४० वर्षापासून धूळ खात पडली आहेत मात्र अध्याप त्यावर कोणताही निर्णय झालेला नाही . समजा जर हाय कोर्ट , सुप्रीम कोर्ट , संसद , राष्ट्रपती , जर या मागण्या मान्य करत नाही तर आदिवासी समावेश करण्याची मागणी करणार्याना आश्वासन देणारे “ उपटसुंभे” मोठे आहेत का ..!
आरक्षण आणि आदिवासी मध्ये समावेश या गोष्टी आणि त्यांची प्रकरणे जशीच्या तसी धूळ खात पडून आहेत मात्र या वेळी राज्यातील सत्ताधारी मंडळींच्या तोंडचे पाणी पळल्याने हा भडका उडालाय ...! आंदोलने पेटवण्यासाठी खास” रसद “ पुरवली जातीय लोकांच्या सामाजिक भावना भडकावून सहानुभूतीची लाट निर्माण करण्याचा प्रयत्न होतोय ...! आपलेच राजकीय सुपारीबहादर सुपारी घेऊन सामाजिक संघर्ष भडकवत आहेत ...! आज कुणाला अनुसूचित जमातीत घ्यायचे ते पूर्णपणे संसदेच्या आधीन आहे , मात्र सर्वच राज्यघटना , राज्यपाल , राष्ट्रपती , आणि संसद यांचा अवमान करत आहेत धनगर समाजाच्या नेत्यांना दाणागोटा पुरवून आणि आदिवासी समाजाला त्यांच्या विरोधात उत्रावून सर्वपक्षीय “ सेफ गेम “ खेळण्याची जय्यत तयारी सुरु आहे मात्र त्यात भरडला जातोय तो सर्वसामान्य माणूस . कोणताही आदिवासी आमदार आज पूर्णपणे बोगस आणि घुसखोरांच्या विरोधात उभे राहताना दिसत नाही जे दिसत आहे त्यांचेही वरवरचे आदिवासी प्रेम आमच्या लक्षात येत आहे .... बोगस आणि घुसखोराना हाटवण्या आगोदर आमच्यातील आमचे घुसखोर आधी हाटवावे लागणार आहेत आणि आदिवासी माणसांची बाजू भक्कमपणे मांडणारे आत्ता समोर आणावे लागणार आहेत .
दुसरे लोक आदिवासींमध्ये येवू पाहत आहेत .. आरक्षण हिस्कौ पाहत आहेत ... पण आमचे नेते गप्प पडून तमाशा पाहत आहेत म्हणजे आमचेच नाही धड , आणि जगाशी लढ ,अशी परिस्थिती तयार होत आहे .
विजयकुमार घोटे
९६२३७०१७०९

धनगर जातीचे लोक केवळ नामसाधर्म्याच्या आधारावर आदिवासींचे आरक्षण मिळवू पाहत आहेत

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धनगर जातीचे लोक केवळ नामसाधर्म्याच्या आधारावर आदिवासींचे आरक्षण मिळवू पाहत आहेत. पण त्यांचा नामसाधर्म्याचा दावा देखील किती पोकळ आहे ते बघा.
पहिला मुद्दा : ते सांगतात की धनगर (Dhangar) या नावाचे इंग्रजी स्पेलिंग (Dhangad) असे झाले आहे.
प्रतिवाद : धनगर (Dhangar) चे स्पेलिंग चुकले असे एकवेळ मानले तरी त्याचा अर्थ असा की या नावाच्या जातीचे नाव मराठीत अथवा त्या जातीच्या बोलीभाषेतही उच्चारानुसार 'धनगड' असे असायला हवे. मात्र प्रत्यक्षात आरक्षणाच्या सुचीत असलेल्या या जातीचे खरे नाव "धांगड" असे आहे, आणि तीही "ओरांव" या आदिवासी जातीची उपजात आहे. जे आरक्षण आहे ते 'धांगड' या उपजातीस आहे. आणि 'धांगड' व 'धनगर' या मूळ नावांत कितीही जीभ ताणून पाहिले तरीही उच्चारानुसार दुरान्वये ही साधर्म्य आढळत नाही. धनगर म्हणतात की इंग्रजीत 'र'(R) च्या जागी 'ड' (D) असे लिहिले जाते. हा एक मोठाच जावईशोध म्हणावा लागेल. हे खरे आहे की इंग्रजीत 'र' आणि 'ड' यांचा बदल होतो, परंतु हा बदल नेहमी 'ड' चा 'र' असा होतो तो कधीही 'र' चा 'ड' होत नाही. (उदाहरणार्थ 'साडी' हा शब्द 'सारी' (Sari) असा होतो, 'अनाडी' हा शब्द 'अनारी' (Anari) असा होतो, परंतु नारी हा शब्द कधीही नाडी असा होत नाही, वारी हा शब्द कधीही वाडी असा होत नाही. धारवाड हे Dharwar लिहिता येऊ शकते मात्र कारवार हे कधीही Karwad (कारवाड) असे लिहिले जाऊ शकत नाही. अशी अनेको उदाहरणे देता येतील) मग जर इंग्रजीचे स्पेलिंग चुकले असेलच तर धनगड (Dhangad) चे धनगर (Dhangar) होऊ शकते मात्र कधीही धनगर (Dhangar) चे धनगड/ धांगड (Dhangad) असे होऊ शकत नाही. आणि त्यामुळे धनगर बांधवांचा दावा की 'धनगर'चे स्पेलिंग Dhangad असे लिहिले गेले आहे हा तांत्रिकदृष्ट्या देखील सपशेल फोल ठरतो. आणि म्हणूनच आपल्या धनगर बांधवांचे असे "र-ड-णे" हे हास्यास्पदच ठरते.
'र' च्या उच्चारणात येणाऱ्या दुर्बलतेला 'रॉटासिजम' असे म्हणतात. हा अनेक भाषांत आहे. आयरिश आणि स्कॉटिश भाषेत 'र' आणि 'न' यांचा बदल होतो. स्पॅनिश भाषेत 'र' चा उच्चार 'ट' असा होतो. म्हणजे इंग्रजांऐवजी स्पेनने भारतावर राज्य केले असते तर धनगरांच्या डोक्यात ही कल्पनाही आली नसती.
दुसरा मुद्दा : धनगर म्हणतात की त्यांस छत्तीसगड आणि मध्यप्रदेश मध्ये धनवार (dhanwar) या नावाने आरक्षण मिळाले असून तेथील धनवार व महाराष्ट्रातील धनगर हे एकच आहेत.
प्रतिवाद : पहिल्या मुद्द्यात दावा केलेली Dhangad (धांगड) आणि छत्तीसगड व मध्यप्रदेश येथील Dhanwar (धनवार) या दोन्ही वेगवेगळ्या जमाती आहेत. धनगरांचा नेमका दावा 'धांगड' वर आहे की 'धनवार'वर आहे हे त्यांचे त्यांनाच पुरेसे स्पष्ट नाही. धनवार आणि धनगर या जातींत संस्कृती, चालीरीती, धार्मिक परंपरा, देवदैवते, भाषा, पेहराव यापैकी काहीही समान नाही. मग ते एक कसे ठरतील? आता धनगर बांधवांचा असा तर दावा नाही ना की इंग्रजीत g चा सुद्धा w होतो, कारण त्याशिवाय Dhangar चे Dhanwar होऊ शकत नाही.
२०१३ साली धनवार या जातीशी नामसाधर्म्य साधणारी दोन जातीनामे छत्तीसगडमध्ये अनुसूचित जमातींत सामील करण्यास हिरवा कंदील मिळाला. ती दोन नावे धनुवार/धनुहार अशी आहेत. दोन्ही शब्दांत 'न' या अक्षरास उकार आहे, त्यामुळे त्याचा आधार घेऊन सुद्धा धनगर अनुसूचित जमातींत येऊ शकत नाहीत. कारण धनगर या शब्दात उकार नाहीच. त्यामुळे त्यांत नामसाधर्म्य देखील आढळत नाही.
बहुदा आपले धनगर बांधव अनुसूचित जमातीची कलम ३४२ नुसार केलेली व्याख्याच वाचायला विसरले असावेत. त्यात स्पष्ट लिहिले आहे की अनुसूचित जमाती केवळ त्यांनाच म्हणता येईल की ज्यांत १) आदिम वैशिष्ट्ये असतील, २) त्यांची वेगळी वैशिष्ट्यपूर्ण संस्कृती असेल, ३) ते भौगोलिक दृष्ट्या पृथक असतील म्हणजेच त्यांच्या वास्तव्याचा प्रदेश हा निश्चित आणि दुर्गम असेल, ४) ते इतर जमातींत मिसळण्यास कचरत असतील.
यापैकी मुद्धा २ म्हणजे वेगळी वैशिष्ट्यपूर्ण संस्कृती ही एक व्यापक व्याख्या आहे आणि भारतातील सर्वच जातींची आणि धर्मांची संस्कृती ही वेगळी आणि वैशिष्ट्यपूर्ण आहे. (उदाहरणार्थ ब्राम्हण, जैन, पारसी, मुस्लिम, शीख या सगळ्यांची संस्कृती ही वेगळी आणि वैशिष्ट्यपूर्ण आहे.) पण म्हणून याचा अर्थ असा नाही की ते सुद्धा अनुसूचित जमाती ठरण्यास पात्र आहेत.
मग बाकीचे मुद्दे पहिले तर असे लक्षात येते की धनगर या जातीत कोणतीही आदिम वैशिष्ट्ये नाहीत. ते भौगोलिक दृष्ट्या अजिबात पृथक नाहीत. (पृथक भौगोलिक क्षेत्र हे अनुसूचित जमातींचे सर्वात महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य आहे.) उलट त्यांची वस्तीस्थाने ही नेहमी बदलत राहतात, त्यामुळे त्यांना मिळालेले भटक्या जमाती हे आरक्षणच योग्य आहे. धनगर दुर्गम भागात वास्तव्य करीत नाहीत, त्यांचे वास्तव्य हे कायम नागरी वस्तींत असते. ते इतर जमातींत व्यवहारासाठी मिसळण्यास कचरत नाहीत. त्यामुळे कुठल्याही प्रकारे धनगर हे अनुसूचित जमाती ठरू शकत नाहीत.

Rahul C Bhangare

आदिवासी दिन कसा साजरा करणार?

आदिवासी दिन कसा साजरा करणार?

TSP परिसरातील रोजगाराच्या संधी स्थानिक आदिवासींना देण्यात याव्या हा राज्यापाल्यांची अधिसूचना आदिवासी विकासात मोलाची भूमिका पार पडू शकते. तयार आहात आपल्या भावंडाना दिशा देण्या साठी ?

गाव आणि तालुका पातळीवर आयोजित करिण्या करिता 

१ ऑगस्ट पर्यंत
➀ सामाजिक जागरुकता करूयात
शिक्षणा विषयी जागरुकता
नोकरीच्या संधी विषयी जागरुकता
कौशल्य विकास जागरुकता

५ ऑगस्ट पर्यंत
➁आदिवासी एकात्मता वाढवूया
गावातील सुशिक्षितांची यादी बनवणे
तालुका पातळीवर यादी संकलित करणे
यादीची प्रत आणि अर्ज तयार करणे

९ ऑगस्ट
➂आदिवासी दिन साजरा करूया
मोठया संखेने एकत्रित येउन संकलित केलेले अर्ज एकत्रित PO/ATC यांना सुपूर्द करणे
उपलब्ध असलेल्या उर्जेचा सामाजिक कार्यात सकारात्मकतेने रचनात्मक उपयोग करणे

राज्यपालांच्या अधिसूचने नुसार निर्देशित केलेली पदे : तलाठी, सर्वेक्षक, ग्राम सेवक, अंगणवाडी पर्यवेक्षक, शिक्षक, आदिवासी विकास निरीक्षक, कृषी सहायक, पशुधन सहायक , परिचारिका, बहुउद्देशीय आरोग्य कर्मचारी

सेवा योजन नाव नोंदणी किवा ओनलायीन नाव नोंदवा !www.maharojgar.gov.in

जास्तीत जास्त बेरोजगारांनी नोंदणी करून उपलब्ध रोजगाराच्या संधी चा उपयोग करावा.
आपण सगळ्यांनी ठरवले तर, ह्या वेळेस चा आदिवासी दिन एक नवी दिशा देणारा ठरेल !



Opinions by representatives on Thane Jilha Vibhajan

Opinions by representatives :

1) Play List : http://www.youtube.com/playlist?list=PLeSyzPzZhp-0-gYVlyz0upmF3XdC2B3g3

2) By Madhukar Pichad (Tribal Minister, Maharashtra)
https://www.youtube.com/watch?v=ZqLgFXUNkPE&index=6&list=PLeSyzPzZhp-0-gYVlyz0upmF3XdC2B3g3

3) By Adv Chintaman Vanaga
https://www.youtube.com/watch?v=9OpC95iquxE&index=4&list=PLeSyzPzZhp-0-gYVlyz0upmF3XdC2B3g3

4) By MLA Vishanu Savara
https://www.youtube.com/watch?v=nzr8y5cs72M&index=5&list=PLeSyzPzZhp-0-gYVlyz0upmF3XdC2B3g3

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Sign Petition for Swayatt Adivasi Jilha


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Hello, I just signed this petition and wanted to ask for your support. The more people who join the campaign, the more likely it is to win. Will you help by adding your name?
Thanks,
AYUSHonline team










शू …आदिवासींनो शांत झोपा !

शू …आदिवासींनो शांत झोपा !
ठाणे जिल्ह्यातील विक्रमगड तालुक्यात आदिवासी उपयोजनेतून बांधण्यात आलेल्या सूर्या धरण प्रकल्पाचे पाणी फक्त पूर्वीच्या जव्हार व आताचा विक्रमगड, डहाणू आणि पालघर या तालुक्यासाठी राखीव होते. परंतु शासनाने या धरणाचे पाणी आता वसई - विरार महानगरपालिका (185 mld) व मिरा - भांईदर महानगरपालिकेला (403mld) देण्याचा निर्णय घेतला आहे. त्या साठी 1325.77 कोटी मंजूर केले आहेत !
हा प्रकल्प तुझे घर, पाडा, गाव, गावदेव बुडवून बनवला पण तू ३० वर्षा पासून तहानलेला. येथून २किमी वर असलेले तुझे आदिवासी पाडे कोरडे !
आणि आता सुसरी, पिंजाळ तुमचे पाणी शहरात पळवणार !
निसर्गाचे जतन करायचे असेल तर ५वी अनुसूची आणि PESA नुसारT TSP चा “स्वायत्त आदिवासी जिल्हा” हाच एक उपाय
Swayatt Adivasi Jilha Kruti Samiti - Thane



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